इस साल विश्व कैंसर दिवस बहतु मायनों में वैश्विक परिदृश्य को देखते हुए यह साफ कहा जा सकता है कि हम कैंसर से लड़ने के लिए ही तैयार नहीं है। बल्कि आने वाने वाली पीढ़ियों को भी इससे बचाने के लिए हम तैयार नहीं हैं। शायद ऐसे ही तमाम आयामों पर विचार करके इस बार कैंसर दिवस की थीम "आई एम एंड आई विल" रखी गई है जो की साल 2016 से 2018 तक “वी कैन, आई कैन थी”।
कैंसर एक ऐसी बीमारी है जिसका इलाज के साथ-साथ सामाजिक विश्लेषण करते रहना भी बेहद जरूरी है, क्योंकि भारतीय समाज के एक बहुत बड़े तबके में महिलाओं के लिए जिस तरह के शर्मिंदगी भरे नियम गढ़े गए हैं वे महिला के कैंसरों के देर से या नहीं डाईग्नोज़ होने के कारण बनते हैं। जिनसे इन कैंसरों के आंकड़ों में इजाफा होता है। एक खास आंकड़े के मुताबिक, देश में हर आठ मिनट में सर्वाइकल कैंसर से एक महिला की मौत होती है। यह न केवल डरावना है बल्कि चिंताजनक भी है।
इसी कड़ी में समाज के एक बहुत बड़े तबके में पुरुषों की भी ऐसी मजबूत छवि ऐसी बनाई गई है, जिसमें उनकी तकलीफों के लिए समाज सहज नहीं रहता, बल्कि उनको अपना दर्द बयां करने पर कमजोर समझता है। जिसके चलते पुरुष में कैंसर उस तरह से एक खास चर्चा का विषय नहीं बन पाता। एक अध्ययन के मुताबिक, 75 साल की उम्र से पहले कैंसर से होने वाली मौत का जोखिम पुरुषों में 7.34 फीसदी है। जबकि यही दर स्त्रियों में 6.28 फीसदी है। इसके साथ ही साल 2018 के आंकड़ों में मुताबिक, कैंसर से होने वाली मौतों की कुल संख्या 7,84,821 थी। जिसमें पुरुषों की संख्या 4,13,519 थी। समय की जरूरत है की ऐसे सभी पुरुष केन्द्रित कैंसरों पर भी चर्चा की जाए और उनका हल निकाला जाए।
आंकड़ों के विश्लेषण और रोग के दायरों का अध्ययन करने से पहले दो चीजें समझना बेहद जरूरी है जो कैंसर के रोग का दायरा न केवल कम कर सकता है, बल्कि जिनको अपनाये जाने पर इसके जोखिम को भी कम कर सकते हैं। जिनके बारे में बता रहे हैं डॉक्टर अभिषेक शंकर, असिस्टेंट प्रोफेसर, प्रीएंटिव ऑन्कोलॉजी, एम्स। डॉक्टर अभिषेक शंकर बताते है कि कैंसर के ही दायरे में यदि देखें तो बहुत से कैंसरों की जड़ें बीमारियों की फैमिली हिस्ट्री में होतीं हैं, और हालांकि यह बात दूसरी बहुत सी बीमारियों पर भी लागू होती है। बहुत जरूरी है कि अपने परिवार में किसी भी बीमारी की फैमिली हिस्ट्री की पर नजर रखें और उसी के अनुसार अपनी भी जांच करवाएं। यह सावधानी कैंसर के केस में खास तौर पर बरतें।
कैंसर से लड़ने के लिए जरूरी है कि इसके इलाज के लिए जागरूकता पैदा की जाये। जिसके बारे में बता रहे हैं डॉक्टर अमर भटनागर, डायरेक्टर सर्जिकल ऑन्कोलॉजी, धर्मशिला नारायणा सुपरस्पेशेलिटी अस्पताल।
डॉक्टर अमर भटनागर ने बताया कि यह सुखद है कि महिला केन्द्रित कैंसरों को लेकर हमारे सामाजिक कार्यकर्ता डॉक्टर्स, नीति निर्माता बहुत गंभीर हैं और जागरूकता का कार्यक्रम चलाते रहते हैं। लेकिन पुरुषों में भी जागरूकता के नए तरीके अपनाने होंगे जिससे न केवल इन मामलों के प्रति संवेदनशीलता बढ़े बल्कि इनपर खुलकर चर्चा करने लायक माहौल भी बनाया जाए, और समाधान के नए तरीके सुझाव सामने आएं।
इलाज के आधुनिक तरीके:- कैंसर के इलाज के तीन मुख्य तरीके हैं :-
- सर्जरी
- रेडियोथेरेपी
- कीमोथेरेपी
बीते दशकों में तीनो के ही क्षेत्रों में बहुत से आधुनिक बदलाव आये हैं जिन्होंने न केवल इस बीमारी का जोखिम बहुत कम कर दिया है बल्कि, मरीज ठीक होकर सामान्य जिन्दगी में भी वापस लौटता है।
इलाज से सम्बंधित डर हो खत्म:- कैंसर के इलाज प्रक्रिया में सबसे बड़े डर या सम्बंधित अंग खो देने और जीवन खो देने के होते हैं। ऐसे में यह जान लेना जरूरी है कि बीते दशकों में कैंसर के इलाज प्रक्रिया में बहुत बदलाव आ चुके हैं। उदाहरण के लिए कैंसर के इलाज में आने वाली ट्रूबीम मशीन (रेडियोथेरेपी मशीन) कैंसर को बारीकी से टारगेट करती है, जिससे कैंसर की कोशिकाएं नष्ट होतीं है और उसके आस पास के ऑर्गन के प्रभावित होने का खतरा बहुत कम हो जाता है। इस विषय में कई बार डॉक्टरों को भी कहते सुना जा सकता है कि कैंसर के मामले में बीमारी के साथ-साथ इसकी इलाज प्रक्रिया अपने आप में एक सफर की तरह होती है। जिसमें कई तरह के उतार चढ़ाव आते हैं। ऐसे में परिवार के सदस्यों और करीबी लोगों का भावनात्मक सहयोग बहुत जरूरी होता है।
साथ ही कैंसर के जोखिम से बचने के उपाय बेहद जरूरी हैं जिसके बारे में मार्गदर्शन कर रहे हैं डॉक्टर अजय शर्मा, सीनियर कंसल्टेंट, मेडिकल ऑन्कोलॉजी, एक्शन कैंसर अस्पताल बताते है कि कैंसरों का जल्द से जल्द डाईग्नोज़ किया जाए। कैंसर जल्दी डाईग्नोज़ न होने के बहुत से कारण होते हैं, लेकिन ध्यान देने वाली बात है कि कैंसर के ही अधिकतर केसेस में डाईग्नोज़ न होने के कारण बहुत व्यापक होते हैं, चाहे वह सामाजिक दृष्टिकोण की वजह से हिचकिचाहट हो या लापरवाही की वजह से बीमारी का बढ़ता जाना हो। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि कैंसर में इलाज प्रक्रिया में इसका समय से डाईग्नोज़ होना इसके इलाज के कामयाबी की कहानी लिखता है। ध्यान रखें, जितना जल्दी डाईग्नोज़ किया जाएगा आगे आने वाला जोखिम उतना ही कम होगा।
पुरुषों को खास तौर पर प्रभावित करने वाले कैंसरों के बारे में विस्तार से बता रहे हैं डॉक्टर नितिन लीखा, एसोसिएट डायरेक्टर, डिपार्टमेंट ऑफ़ सर्जिकल ऑन्कोलॉजी, जेपी अस्पताल नोएडा।
प्रोस्टेट कैंसर का बढ़ता दायरा:- यही आंशिक रूप से इस बात का जिम्मेदार है कि प्रोस्टेट कैंसर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में दूसरा सबसे आम कैंसर है, साथ ही एक्सपर्ट्स ने साल 2020 तक इस कैंसर के आंकड़े के दोगुने हो जाने की आशंका भी जताई थी। हालांकि 50 साल की उम्र के बाद प्रोस्टेट बढ़ने से होने वाली समस्याओं का होना आम है। लेकिन किसी भी तरह के लक्षणों को नजरंदाज करना सही नहीं है। विशेषज्ञों का मानना है की इसके इस आंकड़े का एक कारण जागरूकता की कमी भी है। यह भी कहा गया कि धूम्रपान करने और जंक फूड का सेवन करने वाले पुरुषों में मुख्या रूप से इस कैंसर का खतरा है।
लिप ओरल कैविटी:- एक आंकड़े के मुताबिक, साल 2018 में स्त्री और पुरुष दोनों में कैंसरों के नए मामलों में से लिप ओरल कैविटी का कुल 10.4 फीसदी हिस्सा था जो कि पुरुषों के लिप एंड ओरल कैविटी के नए मामलों में 16.1 फीसदी था, और इसी कैंसर के स्त्रीयों के नए मामलों में 4.8 फीसदी थे।
लंग कैंसर:- साल 2018 में स्त्री पुरुष दोनों के नए मामलों को मिलाकर 5.9 फीसदी लंग कैंसर का हिस्सा था। लेकिन इस कैंसर के पुरुषों के कुल नए मामलों में 8.5 फीसदी हिस्सा था।
कोलोरेक्टम:- उसी साल पुरुषों में कैंसरों के कुल नए मामलों में इस कैंसर का 6.4 फीसदी हिस्सा था जो कि स्त्रीयों के कैंसरों के कुल मामलों में 3.4 फीसदी था। सभी आंकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन इस बात की ओर इशारा करता है कि पुरुष केन्द्रित कैंसरों का बढ़ता दायरा कितना बड़ा चिंता का विषय है।